ख्याति व्यास, Class X A
बाग़ में बैठ निहार रही थी प्रकृति,
गर्व हो रहा था की मैं मनुष्य हूँ – सबसे अदभुत कृति |
परन्तु चींटियों को रौंदते हुए,
एक माली को फूल तोड़ते देख
उठा एक विचार –
क्या मनुष्यता को शोभा देता है ऐसा आचार ?
अभिमान है की हम हैं सबसे ताकतवार प्राणी,
जिनके पास है अनेक वरदान जैसे बुद्धि और वाणी |
पर क्या शक्ति का अर्थ है केवल क्रूर शासन ?
क्या मनुष्य ह्रदय में खो गया है करुणा, संवेदना का आसन ?
ईश्वर ने रचा है मानव रुपी एक अदभुत खेल,
जिसमे मौजूद हैं इंसानियत और हैवानियत का मेल |
कर्म करो ऐसे की समृद्ध हो पुण्य की पूँजी,
अमरता और सम्मान की यही सर्वोच्च कुंजी |
मत करो ऐसे कार्य जो करें मनुष्यता को लज्जित,
आपसी सहयोग व् सहानुभूति से हो हर जीवन सुसज्जित |
नहीं प्रसन्न होंगे मंदिर-मस्जिद में बसने वाले परमात्मा,
यदि उनकी पूजा-अर्चना करोगे जबकि दुखी करो कोई आत्मा |
इस भांति कलंकित करते हो उनका अस्तित्व,
जबकि सृष्टि के कण-कण में है ईश्वरत्व |
यही प्रण लिया मैंने कि सर्वप्रथम मनुष्य बनूँगी,
इस चींटी से प्रेरित हो विश्व-कल्याण में भागीदारी करुँगी,
शायद चेह्चहाते पक्षी और मुस्कुराते फूलों ने सराही यह युक्ति,
आज बाग़ में मिली मेरी ‘मानव आत्मा’ को आत्म-चिंतन, मुक्ति |