ख्याति व्यास, Class X A
अग्नि से जन्मी वह अग्नि-सुता, द्रौपदी था नाम |
जन्म से ही उपेक्षित, पितृ-प्रेम पर पड़ा था विराम |
महाभारत नामक महान गाथा में, थी वह महत्त्वपूर्ण पात्र,
परन्तु क्या यही था उसका अस्तित्व मात्र ?
एक मोहरे की तरह चली गई उस पर नियति की हर कुटिल चाल,
एक स्त्री के रूप में क्या जानना चाहा किसी ने उसका हाल ?
माँ कुंती के वचन का करते हुए सम्मान,
उसने स्वीकार किया पाँचों पांडवों की पत्नी का स्थान |
ऐसी वीरांगना को मेरा प्रणाम !
जिसने हर स्थिति में बनाये रखा अपना गौरव और स्वाभिमान,
बुद्धि, आत्मविश्वास और विवेक थे उसके बल,
इस समर्पण का क्या मिला कभी कोई फल ?
उठे हर ओर से सवाल – क्या थी वह पवित्र ?
कठघरे में आया उसका चरित्र,
कृष्ण की सखी ने मुस्कराहट से सहा हर चुभता सवाल,
और सोचा की क्या अपेक्षा की जाए जब पिता ने ही पुत्री के
जीवन में मांगे थे असंख्य बवाल |
उसके अप्रतिम सौन्दर्य को निखारता आत्म-सम्मान का आभूषण
भी हुआ हैवानियत का शिकार,
जब उस शर्मनाक सभा में अथार्म ने मचाया हाहाकार |
द्रौपदी की पीड़ा और कौरवों की दरिंदगी शायद थे धर्म,
क्योंकि न्यायप्रिय, धर्मी युधिष्ठिर ने नहीं रुकवाया यह कुकर्म |
कहाँ थी अर्जुन की शस्त्र भक्ति ?
कहाँ थी भीम की अपार शक्ति ?
जो मौन रहकर सुनते रहे पांचाली की चीख,
जो प्रतिपल, प्रतिक्षण मांग रही थी सहायता की भीख |
अंधियारे भरे मार्ग में आशा की किरण था कृष्ण का साथ,
जब धर्म की झिलमिलाती लौ को भी न दे पाई अधर्म की प्रचंडता मात |
प्रतिशोध और अपमान के मध्य भी,
उसने धर्म निभाया एक आदर्श पत्नी का ही,
माँगा पतियों की आज़ादी का दान |
एक कृष्ण ही थे, जिनकी कृपा से चोटिल न हुई एक नारी की शान,
एक ऐसे जीवन में जिसमे पंखुडियां थीं कम, ज्यादा थे कांटे |
हर चुनौती का साहस से सामना किया, वनवास के विषम वर्ष भी काटे,
पांडवों की परम हितैषी बन गई वह, अज्ञातवास में एक दासी,
इन्द्रप्रस्थ में पिता, भाई व पुत्रों की भी दी आहूति |
क्या अब भी नहीं जागी आपकी सहानुभूति ?
इतिहास में सदैव होता रहा पांडवों का महिमागान,
परन्तु कब मिलेगा इस अदभुत, अद्वितीय व्यक्तित्व को उसकी गरिमामय पहचान ?
जब अन्य महान हस्तियों के सामान गर्व से लेंगे उसका नाम
और कहेंगे कि महाभारत की नायिका हमारी शान ?