चिराग गोस्वामी, कक्षा १० वीं B
कभी खिड़की के पास बैठे-बैठे, शीतल बयारों का आनंद उठाते हुए, तो कभी कालिंदी की एक मस्त-मगन लहर की भाँती बहते हुए, हमारे मन में अभिलाषा प्रतिबिंबित करने वाला यह शब्द ज़रूर आता है – काश!
इस एक शब्द – काश – से ही मनुज के भाव, उसकी आकांक्षाएं, उसका शोक, उसका आह्लाद, उसके गुण, उसका व्यक्तित्व तथा उसकी प्रवृत्ति दर्पण सी स्पष्ट हो जाती है| ‘काश! मैं भी इतना सफल होता’, ‘काश! मै भी इतना रईस होता’, ‘काश! मुझे सुम्रत्यु प्राप्त हो’ – इन पंक्तियों से हमें कई प्रकार की अभिव्यक्तिओं का बोध होता है|
हर किसी के पास इस ‘काश’ को हकीकत में परिवर्तित करने की काबिलियत होती है| मगर फिर भी जोश, उत्साह, सकारात्मकता, दृढनिश्चय, परिश्रम आदि की कमी होने के कारण यह ‘काश’ कईयों के लिए सर्वथा ‘काश’ ही बन कर रह जाता है|
हमारी इच्छाओं को आकार हम स्वयं ही प्रदान करते हैं| हमें बस उन भूली स्मृतियों को पुनः याद कर उनसे प्रोत्साहन लेना चाहिए| खुद पर विश्वास रखना चाहिए और लघुता मिले तो उसे निर्मलता से स्वीकार कर हमेशा तृप्त रहना चाहिए|
धैर्य की आवश्यकता है, पयोद के सामान,
लक्ष्य की आवश्यकता है, सरिता के सामान,
फिर अंतरिक्ष-अँधेरे सह कर भी,
चमकोगे तुम शुक्रतारे के सामान |